यार को मैंने

Friday, January 23, 2009 ·

*********जानवर*********
तुम्हारा इश्क तुम्हारी वफा ही काफ़ी है,
तमाम उम्र यह आसरा ही काफ़ी है ...
जहां कहीं भी मिलो, मिल के मुस्कुरा देना,
"खुशी" के लिये यह सिलसिला ही काफ़ी है ..
मुझे बहार के मौसम से नहीं कुछ लेना,
तुम्हारे प्यार की रंगीन फ़िज़ा ही काफ़ी है ..
ये लोग कौन सी मन्ज़िल की बात करते है?
मुसाफ़िरों के लिये तो रास्ता ही काफ़ी है.
********तेरे नाम********यही तो है

3 comments:

मोहन वशिष्‍ठ said...
January 23, 2009 at 8:13 PM  

बेहतरीन बेहतरीन बेहतरीन बहुत अच्‍छा लिखते हैं जी

समय चक्र said...
January 23, 2009 at 10:41 PM  

सुन्दर ...कविता है.

गोविन्द K. प्रजापत "काका" बानसी said...
January 24, 2009 at 10:57 AM  

स्वागत
बहुत-बहुत शुक्रियां आपकी अमुल्य प्रतिक्रियां के लिये।

धन्यवाद

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