प्रेम कहानी_ढोला-मारु

Wednesday, January 21, 2009 · 0 comments

एक समय की बात है. पूंगल देश का राजा पिंगल था और उन्हीं दिनों नरवर नगर पर राजा नल का शासन था. पिंगल की रानी ने एक अत्यंत सुंदर कन्या को जन्म दिया जिसे मारवणी नाम दिया गया. इधर नल की रानी दमयंती ने एक सुंदर पुत्ररत्न को जन्म दिया जिसका नाम साल्ह कुँवर रखा गया. साल्ह कुँवर को प्यार से ढोला कहकर पुकारा जाता था. पूंगल में अकाल पड़ने के कारण राजा पिंगल को सपरिवार राजा नल के देश नरवर के लिये प्रस्थान किया. नरवर में पिंगल का राज्योचित मान-सम्मान किया गया. उन्हें आवास के अलावा कुछ सेवक और घोड़े भी दिये गये. इस प्रकार दोनों परिवारों की परस्पर भेंट हुई. बातचीत का सिलसिला चल पड़ा. ढोला की माँ दमयंती मारवणी के रुप को देख कर मोहित हो गई, सो उसने अपने ढोला के साथ मारवणी के विवाह का प्रस्ताव रखा. गहरे विचार-विमर्श के बाद प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया. एक बड़े उत्सव के रुप में दोनों का विधिवत विवाह सम्पन्न हुआ.

सुकाल होने पर पिंगल पूंगल लौट आया. मारवणी भी उसके साथ लौट आई क्योंकि वह अभी सुकुमार बालिका ही थी. समय बीता. उम्र के साथ-साथ मारवणी के शरीर में तरुणाई फुटने लगी. ढोला उसे स्वप्न्न में दिखने लगा. सखियों ने मारवणी की विरह व्यथा स रानी को अवगत कराया. ढोला को लाने के लिये संदेसवाहक भेजे गये मगर कोई भी संदेशवाहक वापस नहीं लौटा.

इन्हीं दिनों घोड़ों का एक सौदागर पुंगल आया और उसने पिंगल से भेंट की. सौदागर ने ढोला से अपनी भेंट में उसकी दानवीरता और शौर्य के बारे में पिंगल को अवगत कराया. उसने पिंगल को यह भी बताया कि ढोला मालवगढ़ के राजा की सुंदर कन्या मालवाणी के प्रेम में अनुरक्त है, इतना ही नहीं ढोला को मारवणी का कोई संदेश ना मिले इसके लिये वह जो कोई भी पुंगल से आता है, मालवणी उसे मरवा देती है.

मंदिर जाते हुए मारवणी ने अपने सखियों से ढोला के ये चर्चे सुने और वो व्यथित हो उठी. मारु ने अपना प्रेम संदेश ढाढ़ियों के माध्यम से ढोला को भिजवाया जिसमें अपने विरह की संपुर्ण वेदना बयान कर दी थी.

रात्रि के समय ढाढ़ियों ने मल्हार राग में मारु का संदेश गा-गाकर सुनाया. संदेश सुन ढोला व्यग्र हो उठा. सवेरे ढोला ने उन्हें मारु को लिवा लाने का आग्रह किया. सोलह-श्रंगार से सजी-धजी मालवणी जब अपने प्रियतम से मिलने संध्या के समय पहुंची तो ढोला मालवणी के समक्ष भी मारु को लिवा लाने का मन्तव्य प्रकट करने से अपने आप को नहीं रोक पाया. विरह के भावी वज्राघात के कारण मालवणी मुर्च्छित हो गई और होश आने पर रह-रहकर विलाप करने लगी. उसने जैसे-तैसे ढोला को दो वर्ष तक रोके रखा. अंतत: उसने अनुमति दे दी. रास्ते में ढोला को कई प्रकार की भ्रामक सूचनाएं मिली, लेकिन ढोला नहीं रुका. रात होते-होते ढोला पूंगल पहुंचा. मारु के आंनद का कोई ठिकाना न था. वह हर्ष के अतिरेक में खो गई. पिंगल ने ढेर सारा दहेज देकर ढोला और मारु को बड़े उत्साह के साथ नरवर के लिये विदा किया.

किंतु मार्ग में फिर एक अप्रत्याशित घटना घट गई. मारु को पीणा सांप ने डस लिया. यह देख ढोला का ह्रदय फटने लगा. वह स्वयं भी मारु के साथ चिता में जलने के लिये तत्पर जो गया. संयोगवश उसी रास्ते से एक योगी और योगिनी निकल रहे थे. योगी द्वारा मारु के ऊपर अभिमंत्रित जल छिड़कने से मारु जीवित हो उठी. ढोला को लगा जैसे अमावस की काली रात, पुर्णिमा कि उजली रात में बदल गई.

ढोला-मारु शीघ्रातिशीघ्र नरवर पहुंँचने का उपक्रम करने लगे मगर दोनों के दुर्भाग्य ने अभी तक उनका पीछा नहीं छोड़ा. इस बार ऊमरा-सुमरा घात लगाकर ढोला-मारु के पिछे पड़ गए, लेकिन दोनों फुर्ती से ऊँट पर बैठ कर ऊमरा-सुमरा के कपट जाल से मुक्त हो भाग निकले. आखिरकार ढोला-मारु को सकुशल नरवर पहुंचने में सफलता मिली. बड़े हर्ष और उत्साह के साथ दोनों का नरवर में स्वागत हुआ. ढोला अपनी दोनों पत्नियों के साथ आंनदमय जीवन व्यतीत करने लगा.