ना जाने क्युं? / तेरे नाम

Friday, January 16, 2009 ·

*~*~*~*~*~*जानवर*~*~*~*~*~*
अपने हर गम-ए-दिल को चुपा के
कुछ अपनों के लिये मुस्कुराना सीखों
है जो ये नम आंखे ये भीगी पलकें
हवाओं को इनका आंचल बनाना सीखों
जो नहीं है आज ज़िन्दगी में कोई बहार तो
कान्टों मे भी खुश रहना सीखों
कतरा-कतरा वक्त युहीं हाथ से फिसल जायेगा
भुला के अपना गम औरों के साथ मुस्कुरना सीखों
*~*~*~*~*तेरे नाम*~*~*~*~*---यहीं तो है

*~*~*~*~*जानवर*~*~*~*~*
उस ने दूर रहने का मशवरा भी लिखा है
साथ ही मोहब्बत का वास्ता भी लिखा है
उस ने यह भी लिखा है मेरे घर नहीं आना
और साफ़ लफ़्ज़ों में रास्ता भी लिखा है
कुछ शब्द लिखे है ज़ब्त की नसीहत में
कुछ शब्दों मे उस ने होसला भी लिखा है
शुक्रिया भी लिखा है दिल से याद करने का
दिल से दिल का है कितना फ़ासला भी लिखा है.
*~*~*~*~*तेरे नाम*~*~*~यहीं तो है.

*~*~*~*~*~*जानवर*~*~*~*~*
क्या-क्या बातें वो अपनी तहरीर में लिखती है
ईक नई तकदीर मेरी तकदीर में लिखती है
वो ऐसी हमदर्द कि अपने प्यार के सारे अल्फ़ाज़
मेरे हाथों की ईक-ईक लकीर में लिखती है
कोई राज़ छुपाना शायद पसन्द नहीं उसे
वो अपना हर ख्वाब खुली ताबीर में लिखती है
मैं उस का ईक मन-चाहा कैदी हुँ इसलिये
नाम मेरा वो ज़ुल्फ़ों की ज़ंजीर में लिखती है
भुल उठे ईक-ईक तस्व्सुर उस के चेहरे से
सारी कहानी वो अपनी तस्वीर में लिखती है
खूब चहकती है वो खत के पहले हिस्से में
लेकिन दिल की सच्ची बात आखिर में लिखती है
*~*~*~*~*तेरे नाम*~*~*~*यहीं तो है.

*~*~*~*जानवर*~*~*~*
जब सावन में तन्हा भीगोगे
जब आंगन खाली पाओगे
जब "साहिल" से टकराती लेहरों में
अपनी तन्हाई में खो जाओगे
जब रात के तन्हा दामन में
तुम चाँद को आधा पाओगे
जब खुद से बातें करते-करते
तुम दूर कहीं खो जाओगे
जब दिल की बात छुपाने को
तुम हम से नज़र चुराओगे
मैं तुम से मुहब्बत करता हुँ
हर बार यह सुनना चाहोगे
इन सब लम्हों में जान लेना के
तुम नही "हम" बन जाओगे.
*~*~*~*तेरे नाम*~*~*~*यहीं तो है


*~*~*~*जानवर*~*~*~*
अब के युँ दिल को सज़ा दी हमने
उसकी हर बात भुला दी हमने
एक-एक फूल बहुत याद आये
शाख-ऐ-गुल जब वो जला दी हमने
आज तक जिस पर वो शरमाते है
बात वो कब की भुला दी हमने
शहर-ऐ-जहन रख से आबाद हुआ
आग जब दिल की बुझा दी हमने
आज फिर याद बहुत आये वो
आज फिर उसको दुआ दी हमने
*~*~*~*~*तेरे नाम*~*~*~*~*यहीं तो है.


ना सुनो तो भी........
*~*~*~*~*~*~*~जानवर~*~**~*~*~*~*
"बीते सपनों में आये बिना तुम्हारे
ऐसी तो कोई रात नहीं जीवन में।"
~*~*~*~*~*तेरे नाम ~*~*~*~*~* यहीं तो है।

*~*~*~*~*जानवर*~*~*~*~*
गुल से क्यों मुहब्बत है, तितलियां समझती है ।
मां के दिल में क्या गम है, बेटियां समझती हैं ।
रूखसती की शहनाई गूंजती है, आंगन में ।
दुल्हनों के आंसू को सहेलियां समझती है ।
तोड़ कर मसलते हो, नर्म नर्म फुलों को ,
दर्द किस को कहते हैं, डालियां समझती है ।
घर में एक जवां बेवा कौन उस का दुख जानें ,
वाम व दर समझते हैं, खिड़कियां समझती है ।
मर घरों में आती है, रोज एक नई दुल्हन ,
किस तरह जली होगी, अर्थियां समझती है ।
कौन मर गया होगा कौन हो गया घायल,
ये तो हर फसादों में गोलियां समझती है ।
मुफलिसों की बस्ती से दूर क्यों उजाले हैं ,
झोपड़ों में घुटती हुई सिसकियां समझती हैं ।
~*~*~*~*~*तेरे नाम ~*~*~*~*~* यहीं तो है।


*~*~*~*~*जानवर*~*~*~*~*
अपने साये से भी अश्कों को छुपा कर रोना।
जब भी रोना हो चरागों को बुझा कर रोना।
हाथ भी जाते हुये वो तो मिलकर ना गये।
मैं ने चाहा जिसे सीने से लगा कर रोना।
तेरे दिवाने क क्या हाल किया है गम ने।
मुस्कुराते हुये लोगों में भी जा कर रोना।
लोग पढ लेते है चेहरे पर लिखी तहरीरें।
ईतना दुश्वर है लोगों से चुप कर रोना।
~*~*~*~*~*तेरे नाम ~*~*~*~*~* यहीं तो है।


*~*~*~*जानवर*~*~*~*
तुम्हारे गम से निस्बत भी बहुत थी,
कि जीने के लिये सुरत भी बहुत थी,
शिकस्त-ए-दिल तो इक दिन लाज़मी थी,
हमें उस से मोहब्ब्त भी बहुत थी,
हुई जो युं दरबदर तो युं कि मुझकों,
तुम्हारे घर कि चाहत भी बहुत थी,
था सामन-ए-सफ़र भी पास ओर कुछ,
मुझे जाने कि उज्ज्लत भी बहुत थी,
वो लडकी मर गयी कल रात आखिर,
उसे कुछ दिन से वहशत भी बहुत थी,
*~*~*~*तेरे नाम*~*~*~*यहीं तो है।

*~*~*~*~*~*जानवर*~*~*~*~*~*
काश हम बेज़ुबान होते
ना फ़िर गम यु बयां होते
काश ना होती ज़िन्दगी कि समझना
फ़िर युं अफ़साने जवान होते
काश ना ख्वहिश होती कुछ पाने कि
ना फ़िर कुछ खोने क गम यहां होते
अगर तोड जाता कोई आशियां हमारा
फ़िर भी खूबसुरत सारे समान होते
लुट जाती अगर रोशनी-ए-ज़िन्दगी,
फ़िर भी अन्धेरे ना यहां होते
टूट्ते हुए भी बे-सुभाह होते
काश हम बेज़ुबान होते
*~*~*~*~*तेरे नाम*~*~*~*~*---यहीं तो है।

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