Wednesday, July 15, 2009 ·


*~*~*~*~*~*~*जानवर*~*~*~*~*~*~*
जब तेरी याद में यह दिल मचल जाता है
आँख बन्द करता हूं और अश्क निकल जाता है
तेरी तस्वीर को सीने से लगा कर जब मैं
खुब रो लेता हुँ तो दिल बहल जाता है
मेरे जिस हाथ ने थामा था कभी तेरा हाथ
दिल पर वो हाथ रखुं, दिल संभल जाता है
तेरी “खुशबु" की महक है मेरे घर में अब तक
कोई गम भी यहां आ जाये तो टल जाता है
कितना बेबस है वो इंसान जिसे मोहब्ब्त में
प्यार मिलता नहीं और वक्त बदल जाता है
वक्त-ए-रुखसत मेरी आंखों ने किया था जो सवाल
अब दुआ बन कर मेरे अश्क में ढल जाता है
आज जलता है यह सीना तो इसे जल जाने दो
चांद देखे बिना सुरज भी तो ढल जाता है
इश्क करना बहुत आसान था लेकिन अब दिल
इश्क का नाम भी सुन ले तो दहल जाता है
शायर मैं था तो नहीं पर तुम्हारी चाहत में
अब तो हर अश्क से एक शैर निकल जाता है
आखिरी वक्त में जब लौट के आये वो
आंख हंसती रही और दम निकल जाता है
*~*~*~*~*तेरे नाम *~*~*~*~*यही तो है*~*~*~*

3 comments:

Anonymous said...
July 15, 2009 at 7:10 PM  

wow...wonderful. It a game of love & lost.
whenever ur in love u can feel all that emotions... & you expressed it very well...

ओम आर्य said...
July 15, 2009 at 7:31 PM  

bahut hi sundar bat kari hai jisame jindgi ki puri falasfa nihit hoti hai .........pyar jindgi ke bina kuchh chije adhuri hai

गोविन्द K. प्रजापत "काका" बानसी said...
July 17, 2009 at 4:16 PM  

बहुत-बहुत शुक्रियां

आप अपना आशीर्वाद मेरे सर पर युहीं बनाये रखे।
@गोविन्द K.@

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