अगर तुम...एक बार....

Tuesday, June 30, 2009 ·

*~*~*~*~*~*~*जानवर*~*~*~*~*~*~*
मेरी जिन्दगी का तसव्वुर मेरे हाथ की लकीरे,
इन्हें काश तुम बदलते तो कुछ और बात होती.
ये खुले-खुले से गेसू, इन्हें लाख तुम संवारो,
मेरे हाथ से संवरते तो कुछ और बात होती.
मैं तेरा आईना था, मैं तेरा आईना हुँ,
मेरे सामने संवरते तो कुछ और बात होती.
अभी आँख ही लड़ी थी, कि गिरा दियआ नज़रों से,
ये जो सिलसीला बढ़ाते, तो कुछ और बात होती.
"काका" अपनी जिन्दगी का तो कुछ गम ही नहीं है,
तेरे दरवाजे पर मरते, तो कुछ और बात होती.
*~*~*~*~*तेरे नाम *~*~*~*~*यही तो है*~*~*~*


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आदत नहीं है मुँह ढँक कर सोने की मुझको,
मुझ पर क्या गुजरेगी!!! जब कब्र में सोना होगा..
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>गोविन्द K. >>>


5 comments:

M VERMA said...
June 30, 2009 at 5:35 PM  

ख्वाहिशो की खूबसूरत फेहरिस्त लिखी है आपने.
बहुत खूब

परमजीत सिहँ बाली said...
June 30, 2009 at 5:52 PM  

बहुत बढिया रचना है।बधाई।

ओम आर्य said...
June 30, 2009 at 6:25 PM  

बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति .............अतिसुन्दर्

Udan Tashtari said...
June 30, 2009 at 10:00 PM  

आदत नहीं है मुझको...

-बहुत उम्दा!!

गोविन्द K. प्रजापत "काका" बानसी said...
July 1, 2009 at 4:50 PM  

बहुत-बहुत शुक्रियां आप सभी महानुभावों का, आप का आशीर्वाद मेरे सर पर बना रहे।

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