ये सोचना की मैं.......

Wednesday, May 13, 2009 ·

*~*~*~*~*~*~*~*~जानवर*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
कहीं चांद रातों में खो गया, कहीं चांदनी भी भटक गई,
मैं चराग, वो भी बुझा हुआ, मेरी रात कैसे चमक गई?
मेरी दास्तान को आरजु थी, तेरी नरम पलकों की छांव में,

मेरे साथ था तुझे जागना, तेरी आँख कैसे झपक गई?
भला हम मिले भी तो क्या मिले! वही दुरियाँ, वही फासले,
ना कभी हमारे कदम बढ़े, ना कभी तुम्हारी झिझक गई.
तेरे हाथ से मेरे होंठों तक वही इंतजार की प्यास है,
मेरे नाम की जो शराब थी, कहीं रास्ते में छलक गई.
तुझे भुल जाने की कोशिशें कभी कामयाब ना हो सकी,
तेरी याद शाख-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गई.
*~*~*~*~*~*~*~*~तेरे नाम*~*~*~*~*~*~*~*~ यही तो है

1 comments:

Udan Tashtari said...
May 14, 2009 at 2:40 AM  

क्या बात है!!

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