ऐसा तो नहीं होता है???

Tuesday, March 17, 2009 ·

*~*~*~*~*~*जानवर*~*~*~*~**~*~*~*
धुंआ बना कर फिज़ा में उड़ा दिया मुझको,
मैं जल रहा था किसी ने बुझा दिया मुझको.
खड़ा हुं आज भी रोटी के चार टुकड़ों के लिये,
सवाल यह है किताबों ने क्या दिया मुझको???
सफैद रंग कि चादर लपैट कर मुझ पर,
बिजुका की तरह खैत पर किस ने सजा दिया मुझको?
मैं एक जरा बुलन्दी को छुने निकल था,
हवा ने थाम कर, जमीन पर गिरा दिया मुझको..
*~*~*~*~*तेरे नाम*~*~*~*~*~*~*यही तो है.

5 comments:

शारदा अरोरा said...
March 17, 2009 at 11:54 AM  

किसी चिंगारी को हवा दे
कि वो जलना चाहे
तेरे सीने में दफ़न है
वो पलना चाहे

बाकी की पंक्तियाँ कल अपने ब्लॉग पर पेश करूंगी |

रंजू भाटिया said...
March 17, 2009 at 12:15 PM  

मैं एक जरा बुलन्दी को छुने निकल था,
हवा ने थाम कर, जमीन पर गिरा दिया मुझको..

सही सुन्दर लगी यह पंक्तियाँ

गोविन्द K. प्रजापत "काका" बानसी said...
March 17, 2009 at 2:30 PM  

@रंजना जी,

बहुत-बहुत्त शुक्रियां आपने समय दिया।

बस आप सब का हाथ मेरे सर पर बना रहे, मैं अपनी तरफ से अच्छा करने का प्रयास करुंगा।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...
March 17, 2009 at 6:32 PM  

मैं भी प्रजापत और, तुम भी तो हो प्रजापत,

ब्लाग जगत में आने पर मैं करता हूँ स्वागत।

तुमको लिखने की आदत है,

मुझको पढ़ने की ही लत है।


जलता हुआ बुझाया तुमको,

कभी नही अब जलना।

झंझावातों को सह जाना,

फूलों सा काँटों में पलना।

D K Nagda said...
March 17, 2009 at 10:44 PM  

dear
this is really very nice and beautiful.
and it has very deep thought for understand it imagination power should be very high.
And i hope you have very good creativity so use it in a very proper way.
My wishes always with you.

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