दर्द

Tuesday, January 27, 2009 ·


***********जानवर************
बरसों हो गये राख बने हुये,
पर धुँआ उठता बार-बार है,
जमाना हो गया जख्म लगे हुये,
क्यों यह रीसता बार-बार है,
मुहब्बत दर्द बन कर रह गई,
अश्कों का सैलाब टुटता बार-बार है,
जीतने कि कोशिश करते है हमेशा,
पर मुकद्दर हराता बार-बार है,
कोई "साहिल" पर पहुचें भी कैसे?
यहाँ तुफान गुजरता बार-बार है,
हर लम्हा बदलती है फितरत जिनकी,
उनसे दिल डरता बार-बार है।
********तेरे नाम********यही तो है

1 comments:

दिगम्बर नासवा said...
January 27, 2009 at 8:25 PM  

जमाना हो गया जख्म लगे हुये,
क्यों यह रीसता बार-बार है
खूबसूरत है ये शेर सबसे ...........यूँ तो सब ही अच्छी हैं

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